"तो कौन सा गाँव बताया आपने?"
पूरी कोशिश करने के बाद भी जब महाशय मेरी जात का पता नहीं कर पाए, तो अंतिम प्रयासों में उन्होंने गाँव, देहात से अंदाजा लगाने चाहा.
सुधाजी के रेलप्रसंग को पढने पर मुझे ये पुरानी घटना याद आई, उनके ही सुझाव पर आलसी होने के बावजूद मैंने इसे शब्दों में गुथने की कोशिश की.
ये बात कोई आठ-एक साल पुरानी होगी, मैं तब B.Sc. कर रहा था, और उस बनारस से पटना की रेल यात्रा पर था. बनारस से वस्तुतः कोई सीधी और अच्छे समय की ट्रेन नहीं है पटना के लिए, तो ज्यादातर जनता भारत के सबसे बड़े रेलवे जंक्सन, मुगलसराय, से ट्रेन पकड़ना पसंद करते हैं. जगह की किल्लत और संभवतः engineering की कोई महान रचना करने के लिए, कुछ भारतीय रेलवे स्टेशन अजीबोगरीब रूप में गधे हुए हैं, वास्तु भी एक कारण हो सकता है. मुगलसराय, अल्लाहाबाद और खरगपुर कुछ ऐसे ही स्टेशन हैं जहाँ अगर लोकल जनता ने मदद नही की तो आप ट्रेन पकड़ चुके!
तो कहानी पर वापस आते हुए, मैं मुगलसराय से पटना जा रहा था. ब्रम्हपुत्र मेल की ठसाठस हालत देख मैंने उसमे ना चढ़ना ही ठीक समझा. अगली ट्रेन कोई फास्ट-पैसेंजर टाइप थी. प्लेटफार्मों की भूलभुलैया से जूझता हुआ मैं सही जगह पहुंचा. जापान जाने की चाह में चीन न पहुच जाऊं, इसके लिए मैंने पास में खड़े पुलिस वाले अंकल जी से पूछना ठीक समझा.
"ये पटना ही जा रही है ना?"
ऊपर से नीचे तक मुझे देख, कुछ समझ कर उनका उत्तर आया "अच्छी ट्रेन है, बैठ जाओ, ज्यादा भीड़ भी ना होगी"
थोडा पूछने पे ज्यादा मिलना हमेशा बूरा नही होता. ट्रेन वैसी ही निकली - समय-बंध और खाली! बुरा ये हुआ, की वो अंकल जी भी साथ में ही आ धमके और पुरे रास्ते एक ही बिंदु पर अटके रहा - मेरी जात कौन सी है?
"पढ़ते हो? नाम क्या है?"
"जी, पुनीत नाम है"
"बस पुनीत, आगे कुछ नहीं है?"
"नहीं, आजकल कौन लगाना चाहता आगे कुछ?"
"हाँ, सहिये कहे, फायदे ही का है, बल्कि कुछ के लिए तो फायदे ही है."
इतनी खाली ट्रेन में मेरा ये संभवतः पहला ही सफ़र था. मुझे अपनी क्षमता में तो याद नहीं, वैसी कोई और यात्रा. पूरी द्वितीय श्रेणी (2nd class) पेस्सेंजर बोगी में कोई १०-१ लोग ही होंगे, और मैं इन महानुभाव के साथ था.
"तो पटना पढ़ाई के लिए जा रहे, या रिश्ते में?"
"दीदी रहती है."
"अच्छा. पटना कहाँ?"
"सिटी, वहीं के हैं आप?", कई बार सवालों से बचने का सबसे सुगम उपाय होता है एक और सवाल दाग देना.
"नहीं नहीं, हम तो आरा के है. वहां ****** साहब लोगों का एक बड़ा गाँव है, वहीं के हैं. पोस्टिंग में इ मुगलसराय-चंदोली आना-जाना लगा रहता है"
"वैसे अजीब जगह है ई चंदोली, नक्सली भी हैं और कोयला चुराने वाले भी" मेरा द्दंव शायद उल्टा पड़ चूका था, उनके पास काफी कहानियां थीं पकाने के लिए.
कुछ समय का विश्राम, खैनी-अभिनन्दन, और वापस अपने मुद्दे पर, "पिता जी भी नहीं लगाते, या बस बच्चों के नाम से हटा दिया?"
"हाँ? मतलब? मतलब क्या हटा दिया?"
"अरे, टाईटील, अरे surname कहते हैं न अंग्रेजी में"
"अच्छा, हाँ हाँ वो भी नहीं पसंद करते." मुझे अब तक इस वार्ता में मज़ा आना शुरू हो चूका था.
"तो कौन सा गाँव बताया आपने?" पूरी कोशिश करने के बाद भी जब महाशय मेरी जात का पता नहीं कर पाए, तो अंतिम प्रयासों में उन्होंने गाँव, देहात से अंदाजा लगाने चाहा. मेरे स्कूल के एक अध्यापक की भी ये आदत हुआ करती थी, कौन गाँव बताया रे-पुछ के छात्र का चरित्र-चित्रण उनका शौक था. मुझे उनके चेहरे पर खिसियाहट दीखने लगने थी. किसी को चिढाने का अपना ही मज़ा है, वो भी तब जब सामने वाला चिढ रहा हो.
"बलिया, छाता गाँव से हैं. आप गए हैं वहां? सहतवार के और दखिन में पड़ता है. कटहल नाले के उधर", मुझे अपने गाँव के बारे में इतना ही पता है, बहुत जानता हूँ ये बताने के लिए काफी था.
"अच्छा, यार वहाँ तो हमारे बिरादरी के बहुतों का ब्याह हुआ है. **** ही हो तुमलोग. हमको लगा चेहरा देख के, आदमी की पहचान अच्छी है हमारी. अच्छेबर बाबू को तो जनबे करते होगे" बांछे खिल चुकी थी अंकल जी की.
"नहीं, उनके घर के नहीं हैं. वैद्य जी के यहाँ के हैं" मैंने अंतिम गुगली डाली.
"कौन वैद्य जी! नाम क्या बताया, मतलब पूरा नाम क्या बताया? अरे यार, आर्य समाजी हो क्या, बुझउवल कर रहे?"
"##### जात का हूँ, आपने पूछा ही नहीं खुल के. और जात में हमें ज्यादा कुछ दीखता नही तो हमने बताया नहीं"
चेहरा अभी भी भी खिला ही हुआ था. ख़ुशी किस बात की थी वो बताना आसान है, आखिर पूरा सफर अपने जैसी जात वाले के साथ ही की गयी थी. मैं भी थोडा तो खुश था, रास्ते भर मनोरंजन का कार्यक्रम चलता रहा, पर एक बड़ा प्रश्न तो अभी भी वहीं था. आखिर किस हद्द तक जरुरी है ये जात का हवाला रखना? रस्ते में चलने वाले की भी जात पता करने की ये अजीबोगरीब चाहत कहीं न कहीं तो अन्दर तो छेड़ ही जाती है. संभवतः कुछ वर्षों में हमें बदलाव दिखना शुरू हो, संभवतः....
आपने भी तो ट्रेन में ऐसी किसी घटना से दो-चार किया ही होगा, अपना वृत्तांत भी सुनाये, कुछ कथन/comments हमेशा ही सराहनीय और प्रेरणा-स्रोत होते हैं...
(ये पोस्ट सुधा जी के सुझाव पर Indiblogger एवम Expedia द्वारा प्रायोजित प्रतियोगिता के लिया लिखा गया है. हिंदी को माध्यम, वार्ता के स्वाद को कायम रखने के लिए किया गया.)
पूरी कोशिश करने के बाद भी जब महाशय मेरी जात का पता नहीं कर पाए, तो अंतिम प्रयासों में उन्होंने गाँव, देहात से अंदाजा लगाने चाहा.
सुधाजी के रेलप्रसंग को पढने पर मुझे ये पुरानी घटना याद आई, उनके ही सुझाव पर आलसी होने के बावजूद मैंने इसे शब्दों में गुथने की कोशिश की.
वाराणसी रेलवे स्टेशन |
तो कहानी पर वापस आते हुए, मैं मुगलसराय से पटना जा रहा था. ब्रम्हपुत्र मेल की ठसाठस हालत देख मैंने उसमे ना चढ़ना ही ठीक समझा. अगली ट्रेन कोई फास्ट-पैसेंजर टाइप थी. प्लेटफार्मों की भूलभुलैया से जूझता हुआ मैं सही जगह पहुंचा. जापान जाने की चाह में चीन न पहुच जाऊं, इसके लिए मैंने पास में खड़े पुलिस वाले अंकल जी से पूछना ठीक समझा.
"ये पटना ही जा रही है ना?"
ऊपर से नीचे तक मुझे देख, कुछ समझ कर उनका उत्तर आया "अच्छी ट्रेन है, बैठ जाओ, ज्यादा भीड़ भी ना होगी"
थोडा पूछने पे ज्यादा मिलना हमेशा बूरा नही होता. ट्रेन वैसी ही निकली - समय-बंध और खाली! बुरा ये हुआ, की वो अंकल जी भी साथ में ही आ धमके और पुरे रास्ते एक ही बिंदु पर अटके रहा - मेरी जात कौन सी है?
"पढ़ते हो? नाम क्या है?"
"जी, पुनीत नाम है"
"बस पुनीत, आगे कुछ नहीं है?"
"नहीं, आजकल कौन लगाना चाहता आगे कुछ?"
"हाँ, सहिये कहे, फायदे ही का है, बल्कि कुछ के लिए तो फायदे ही है."
इतनी खाली ट्रेन में मेरा ये संभवतः पहला ही सफ़र था. मुझे अपनी क्षमता में तो याद नहीं, वैसी कोई और यात्रा. पूरी द्वितीय श्रेणी (2nd class) पेस्सेंजर बोगी में कोई १०-१ लोग ही होंगे, और मैं इन महानुभाव के साथ था.
"तो पटना पढ़ाई के लिए जा रहे, या रिश्ते में?"
"दीदी रहती है."
"अच्छा. पटना कहाँ?"
"सिटी, वहीं के हैं आप?", कई बार सवालों से बचने का सबसे सुगम उपाय होता है एक और सवाल दाग देना.
"नहीं नहीं, हम तो आरा के है. वहां ****** साहब लोगों का एक बड़ा गाँव है, वहीं के हैं. पोस्टिंग में इ मुगलसराय-चंदोली आना-जाना लगा रहता है"
"वैसे अजीब जगह है ई चंदोली, नक्सली भी हैं और कोयला चुराने वाले भी" मेरा द्दंव शायद उल्टा पड़ चूका था, उनके पास काफी कहानियां थीं पकाने के लिए.
कुछ समय का विश्राम, खैनी-अभिनन्दन, और वापस अपने मुद्दे पर, "पिता जी भी नहीं लगाते, या बस बच्चों के नाम से हटा दिया?"
"हाँ? मतलब? मतलब क्या हटा दिया?"
"अरे, टाईटील, अरे surname कहते हैं न अंग्रेजी में"
"अच्छा, हाँ हाँ वो भी नहीं पसंद करते." मुझे अब तक इस वार्ता में मज़ा आना शुरू हो चूका था.
"तो कौन सा गाँव बताया आपने?" पूरी कोशिश करने के बाद भी जब महाशय मेरी जात का पता नहीं कर पाए, तो अंतिम प्रयासों में उन्होंने गाँव, देहात से अंदाजा लगाने चाहा. मेरे स्कूल के एक अध्यापक की भी ये आदत हुआ करती थी, कौन गाँव बताया रे-पुछ के छात्र का चरित्र-चित्रण उनका शौक था. मुझे उनके चेहरे पर खिसियाहट दीखने लगने थी. किसी को चिढाने का अपना ही मज़ा है, वो भी तब जब सामने वाला चिढ रहा हो.
मेरा गाँव |
"अच्छा, यार वहाँ तो हमारे बिरादरी के बहुतों का ब्याह हुआ है. **** ही हो तुमलोग. हमको लगा चेहरा देख के, आदमी की पहचान अच्छी है हमारी. अच्छेबर बाबू को तो जनबे करते होगे" बांछे खिल चुकी थी अंकल जी की.
"नहीं, उनके घर के नहीं हैं. वैद्य जी के यहाँ के हैं" मैंने अंतिम गुगली डाली.
"कौन वैद्य जी! नाम क्या बताया, मतलब पूरा नाम क्या बताया? अरे यार, आर्य समाजी हो क्या, बुझउवल कर रहे?"
"##### जात का हूँ, आपने पूछा ही नहीं खुल के. और जात में हमें ज्यादा कुछ दीखता नही तो हमने बताया नहीं"
चेहरा अभी भी भी खिला ही हुआ था. ख़ुशी किस बात की थी वो बताना आसान है, आखिर पूरा सफर अपने जैसी जात वाले के साथ ही की गयी थी. मैं भी थोडा तो खुश था, रास्ते भर मनोरंजन का कार्यक्रम चलता रहा, पर एक बड़ा प्रश्न तो अभी भी वहीं था. आखिर किस हद्द तक जरुरी है ये जात का हवाला रखना? रस्ते में चलने वाले की भी जात पता करने की ये अजीबोगरीब चाहत कहीं न कहीं तो अन्दर तो छेड़ ही जाती है. संभवतः कुछ वर्षों में हमें बदलाव दिखना शुरू हो, संभवतः....
आपने भी तो ट्रेन में ऐसी किसी घटना से दो-चार किया ही होगा, अपना वृत्तांत भी सुनाये, कुछ कथन/comments हमेशा ही सराहनीय और प्रेरणा-स्रोत होते हैं...
(ये पोस्ट सुधा जी के सुझाव पर Indiblogger एवम Expedia द्वारा प्रायोजित प्रतियोगिता के लिया लिखा गया है. हिंदी को माध्यम, वार्ता के स्वाद को कायम रखने के लिए किया गया.)
loved reading it....specially in Hindi :)
ReplyDeleteHow do you write hindi blog,, have you used any dynamic font..
ReplyDeleteधन्यवाद :)
ReplyDeleteNo, I didnt use any dynamic font, I just used the Google/Blogger's inbuilt transliteration system....
ReplyDeleteThanks for the visit and the interest too :)
Mazedar vakya hua aapke saath! Safar me jin logon se hum milte hain, mere khyal me yeh prashn sabse jyada common hota hai -- kahan ke ho?
ReplyDeletePata nahi logon ko yeh jaane mein itni dilchaspi kyun rehti hain?!
Bada mazaa aaya aapka yeh post padh kar, Punit. Log to kaafi hadh tak jaat pata lagaane ke liye kucch bhi kar sakte hain. Pataa nahin yeh aadat kab chhutegi !
ReplyDeletekaafi manoranjak lekh tha...lutf uthaaya maine
ReplyDelete:) शुक्रिया!
ReplyDeleteधन्यवाद सुधा जी, आपके ही पोस्ट से मुझे ये पुराना प्रसंग याद आया... :)
ReplyDeleteenjoyed the read. great penning.
ReplyDeletethank you Pramod ji! You must have some similar experience with people super-interested in your family, village and caste...isn't it?
ReplyDeleteLovely…
ReplyDeletemumbaiflowerplaza.com
:) धन्यवाद!
ReplyDeleteपर लोग जैसे भी हों, 2nd क्लास में यात्रा का अपना अलग ही आनंद होता है...
Lovely…
ReplyDeleterosesandgifts.com